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Occult Significance of Laughter


Laughter is the spontaneous expression of human nature. The way one laughs reflects behaviour and the character. It unveils the secrets of a particular personality. Often smile is confused with the laughing. In fact many people wear a mask of smile especially those who are involved in marketing or handling customers, but when they laugh open heartedly one can come to know their nature. In this article I intend to deal with the laughter. 

OCCULT SIGNIFICANCE OF LAUGHTER

 

Laughter is the spontaneous expression of human nature. The way one laughs reflects behaviour and the character. It unveils the secrets of a particular personality. Often smile is confused with the laughing. In fact many people wear a mask of smile especially those who are involved in marketing or handling customers, but when they laugh open heartedly one can come to know their nature.

 

In this article I intend to deal with the laughter. As each of us has a different handwriting, a different style of walking similarly each of one has different laughing style, and it has termendous significance. A man starts laughing and then the level arises and goes to the maximum and then finally come down. During the laughter the voice is generated, some of the portions of the body move.

 

People who laugh open heartedly are free, honest and kind hearted. They help others and possess a good determination and possess a sense of responsibility. They are well organised and try to be systematic in every walk of their life. They are good planners and when it comes to implement a thing they are usually successful.

 

A LAUGHTER IN INSTALLMENTS

This laugh rather defective, it is when a person starts laughing and then stops and then laughs. This laugh indicates secrecy and a person with low confidence level, rather conscious about the people and lacks consistency. These people are often irresponsible and do not trust on everybody. They often feel neglected and disgusted when things and people do not turn out in their favour.

 

MUSICAL LAUGHTER

Musical laughter is a sweet laughter with an echoing effect. The listeners are pleased to hear this laugh. This laugh indicates emotional and a very warm person. These people are confident and hard workers., they are good planners but are slow in implementing. These people generally possess good health but then are often troubled by colds and coughs. These people generally possess a pleasing and a charming nature, but often differ in the views from their family.

 

PROLONGED LAUGHTER

This is a laughter which lasts for a while and leaves an impact on others. These people are extroverts, short tempered, possess a good heart, and often start the work at their full strength but when it continues they lose their interest in it. In fact these people possess a mind which is not stable, they are often seen doing more than a thing at a time and as a result often get into the problems. These people possess good health and have a good married life.

 

CONTROLLED LAUGHTER

Controlled laughter is a slow and slight laughter. These people are diplomatic and often do not mix and mingle with people. They are suspicious by nature. These people are reserved and intoverts. They make a good career in trading.

 

PLEASANT LAUGHTER

It reflects a pleasant personality. Such people are liberal by nature. They are intelligent and influential. These people are successful in their undertakings and possess a analysing mind.

 

MISCELLANEOUS

1. A person who always laughs remains lucky in his entire life and people who meet him are always influenced by him.

 

2. A person who does not laughs at all indicates suicidal tendency and intact majority of people who commit suicide comes under this category.

 

3. If a husband and wife have a same type of laughter it indicates they will have a very good married life.

 

4. Strange laughter indicates a person will have many adversities in life but will be fortunate after 40 years.

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Hindi Articles

नवरात्र में कैसे करें संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ

नवरात्र में कैसे करें संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ
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श्री दुर्गा सप्तशती
श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ करने का अलग विधान है। कुछ अध्यायों में उच्च स्वर, कुछ में मंद और कुछ में शांत मुद्रा में बैठकर पाठ करना श्रेष्ठ माना गया है। जैसे कीलक मंत्र को शांत मुद्रा में बैठकर मानसिक पाठ करना श्रेष्ठ है। देवी कवच उच्च स्वर में और श्रीअर्गला स्तोत्र का प्रारम्भ उच्च स्वर और समापन शांत मुद्रा से करना चाहिए। देवी भगवती के कुछ मंत्र यंत्र, मंत्र और तंत्र क्रिया के हैं। संपूर्ण दुर्गा सप्तशती स्वर विज्ञान का एक हिस्सा है।

वाकार विधि: 
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प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। 

संपुट पाठ विधि: 
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किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-,  संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। लेकिन यह अतिफलदायी है। 
अच्छा यह होगा कि आप संपुट के रूप में अर्गला स्तोत्र का कोई मंत्र ले लीजिए। या कोई बीज मंत्र जैसे ऊं श्रीं ह्रीं क्लीं दुर्गायै नम: ले लें या ऊं दुर्गायै नम: से भी पाठ कर सकते हैं। 
 
 
नवरात्र पूजा विधि
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सर्वप्रथम- देवी भगवती को प्रतिष्ठापित करें। कलश स्थापना करें। दीप प्रज्ज्जवलन करें। ( अखंड ज्योति जलाएं यदि आप जलाते हों या जलाना चाहते हों)
ध्यान- सर्वप्रथम अपने गुरू का ध्यान करिए। उसके बाद गणपति, शंकर जी, भगवान विष्णु, हनुमान जी और नवग्रह का।

पाठ विधि
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संकल्प- श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पहले भगवान गणपति, शंकर जी का ध्यान करिए। उसके बाद हाथ में जौ, चावल और दक्षिणा रखकर देवी भगवती का ध्यान करिए और संकल्प लीजिए...हे भगवती मैं.....( अमुक नाम)....सपरिवार...( अपने परिवार के नाम ले लीजिए...)...गोत्र.( अमुक गोत्र)....स्थान ( जहां रह रहे हैं)... पूरी निष्ठा, समर्पण और भक्ति के साथ आपका ध्यान कर रहा हूं। हे भगवती आप हमारे घर में आगमन करिए और हमारी इस मनोकामना... ( मनोकामना बोलें लेकिन मन ही मन) को पूरा करिए। श्रीदुर्गा सप्तशती के पाठ, जप ( माला का उतना ही संकल्प करें जितनी नौ दिन कर सकें) और यज्ञादि को मेरे स्वीकार करिए। इसके बाद धूप, दीप, नैवेज्ञ के साथ भगवती की पूजा प्रारम्भ करें।


अन्य महत्वपूर्ण नियम :- 
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दुर्गा शप्तसती का पाठ शुरू करने के पहले प्रथम पूज्य गणेश की पूजा करनी चाहिए।  यदि घर में कलश स्थापन किया है तो पहले कलश का पूजन फिर नवग्रह की पूजा और फिर अखंड दीप का पूजन करना चाहिए।  

दुर्गा शप्तसती के पाठ में अर्गला,  कीलक स्त्रोत और कवच के पाठ से पहले शापोध्दार का पाठ करना आवश्यक है।  दुर्गा सप्तसती के सभी मंत्र ब्रह्मा , वसिष्ठ और विश्वामित्र के द्वारा शापित किये गए है।  शापोद्धार के बिना जाप का फल प्राप्तः नहीं होता है।  

दुर्गा सप्तसती का पाठ करने से पहले और बाद में नवारण मंत्र " ॐ ऐ ह्री क्लीं चामुण्डाय विच्चे " का पाठ करना परम आवशयक है।  
इस मंत्र में लक्ष्मी काली और सरस्वती के बीज मंत्र का संग्रह है।  

दुर्गा सप्तसती पाठ के आरंभ और अंत में क्षमा प्रार्थना का पाठ अवश्य करना चाहिए।  

श्री दुर्गा सप्तसती ग्रन्थ में सात सो श्लोक है।  प्रथम चरित्र में पहला अध्याय , मध्यम चरित में दूसरा तीसरा और चौथा अध्याय और उत्तम चरित में शेष अध्याय रखे गए है।  
 
दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय सिले हुए वस्त धारण नहीं करने चाहिए। पुरुषो को धोती और स्त्रियों को साड़ी धारण करनी चाहिए।

दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय एकाग्रचित होना आवश्यक होता है। इसलिए पाठ करते समय आलस न करें और जम्हाई ने लें। मां दुर्गा में ध्यान लगाने का प्रयास करें। पाठ करते समय बीच में किसी और से बात न करें।

अगर पाठ करते समय आपका हाथ पैर से स्पर्श हो जाता है, तो सबसे पहले जल से हाथों को धाएं, उसके बाद ही पुस्तक को स्पर्श करें। क्योंकि दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय शुद्धता का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है।

 


 

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कुंडली मिलान में कब निरस्त हो जाता है नाड़ी दोष, जानिए 3 नियम

कुंडली मिलान में कब निरस्त हो जाता है नाड़ी दोष, जानिए 3 नियम

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हिंदू धर्म में विवाह से पहले अष्टकूट यानी गुण मिलान का खासा महत्व है।

इसमें वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी के आधार पर वर-वधू के गुणों का मिलान किया जाता है।

इसमें सबसे ज्यादा अहम नाड़ी है।

इसकी अहमियत इस बात से पता चलती है कि ज्यादा गुण मिलने के बावजूद अगर नाड़ी दोष है तो विवाह वर्जित बताया जाता है। हालांकि अगर संभावित वर और वधू की कुंडली में तीन शर्तों में से एक भी पूरी हो रही हो तो नाड़ी दोष निरस्त हो जाता है।

कुंडली में चंद्रमा की नक्षत्र में स्थिति के आधार पर नाड़ी का पता चलता है। कुल नक्षत्र 27 होते हैं, इस प्रकार हर नाड़ी के 9-9 नक्षत्र होते हैं।

वैदिक ज्योतिष में नाड़ी 3 प्रकार की होती हैं-

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आदि, मध्य और अन्त्य नाड़ी

आदि या आद्य नाड़ी-

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ज्येष्ठा, मूल, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी,हस्त, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद और अश्विनी नक्षत्र की गणना इस नाड़ी में की जाती है।

मध्य नाड़ी-

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पुष्य, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, भरणी, घनिष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र की गणना मध्य नाड़ी में होती है।

अन्त्य नाड़ी-

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स्वाति, विशाखा, कृतिका, रोहिणी, अश्लेषा, मघा, उत्तारषाढ़ा, श्रवण और रेवती नक्षत्रों की गणना अन्त्य नाड़ी में की जाती है।

कैसे लगता है नाड़ी दोष

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जब संभावित वर और वधू के जन्म नक्षत्र एक ही नाड़ी में आते हैं, तब यह दोष लगता है।

इस दोष के चलते गुण मिलान में 8 गुणों की हानि होती है।

इस दोष के लगने से विवाह को वर्जित बताया जाता है।

इस दोष के बावजूद विवाह होने पर विवाह में अलगाव, मृत्यु और दुखमय जीवन की आशंकाएं होती हैं।

किन स्थितियों में निरस्त हो जाता है नाड़ी दोष

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यदि संभावित वर और वधू का जन्म नक्षत्र समान हो, लेकिन दोनों के चरण अलग-अलग हों तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।

यदि दोनों की राशि समान हो, लेकिन जन्म नक्षत्र अलग-अलग हों तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।

यदि दोनों के जन्म नक्षत्र समान हों, लेकिन राशि अलग-अलग हों तो नाड़ी दोष नहीं लगता है

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जानिए आरती के बाद क्यों बोलते हैं कर्पूरगौरं मंत्र

जानिए आरती के बाद क्यों बोलते हैं कर्पूरगौरं मंत्र

किसी भी मंदिर में या हमारे घर में जब भी पूजन कर्म होते हैं तो वहां कुछ मंत्रों का जप अनिवार्य रूप से किया जाता है। सभी देवी-देवताओं के मंत्र अलग-अलग हैं, लेकिन जब भी आरती पूर्ण होती है तो यह मंत्र विशेष रूप से बोला जाता है-

कर्पूरगौरं मंत्र

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।

सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि।।

ये है इस मंत्र का अर्थ

इस मंत्र से शिवजी की स्तुति की जाती है। इसका अर्थ इस प्रकार है-

कर्पूरगौरं- कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले।

करुणावतारं- करुणा के जो साक्षात् अवतार हैं।

संसारसारं- समस्त सृष्टि के जो सार हैं।

भुजगेंद्रहारम्- इस शब्द का अर्थ है जो सांप को हार के रूप में धारण करते हैं।

सदा वसतं हृदयाविन्दे भवंभावनी सहितं नमामि- इसका अर्थ है कि जो शिव, पार्वती के साथ सदैव मेरे हृदय में निवास करते हैं, उनको मेरा नमन है।

मंत्र का पूरा अर्थ- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।

यही मंत्र क्यों….

किसी भी देवी-देवता की आरती के बाद कर्पूरगौरम् करुणावतारं….मंत्र ही क्यों बोला जाता है, इसके पीछे बहुत गहरे अर्थ छिपे हुए हैं।

भगवान शिव की ये स्तुति शिव-पार्वती विवाह के समय विष्णु द्वारा गाई हुई मानी गई है।

अमूमन ये माना जाता है कि शिव शमशान वासी हैं, उनका स्वरुप बहुत भयंकर और अघोरी वाला है। लेकिन, ये स्तुति बताती है कि उनका स्वरुप बहुत दिव्य है। शिव को सृष्टि का अधिपति माना गया है, वे मृत्युलोक के देवता हैं, उन्हें पशुपतिनाथ भी कहा जाता है, पशुपति का अर्थ है संसार के जितने भी जीव हैं (मनुष्य सहित) उन सब का अधिपति।

ये स्तुति इसी कारण से गाई जाती है कि जो इस समस्त संसार का अधिपति है, वो हमारे मन में वास करे। शिव श्मशान वासी हैं, जो मृत्यु के भय को दूर करते हैं। हमारे मन में शिव वास करें, अकाल मृत्यु का भय दूर हो।

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